डिमेंशिया से इसलिए बचनेे की जरूरत है
डिमेंशिया बुजुर्गों में पायी जानेवाली दूसरी सबसे बड़ी बीमारी है। दुनिया में करीब पांच करोड़ लोग इससे प्रभावित हैं और भारत के करीब 41 लाख बुजुर्ग इस बीमारी से प्रभावित हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि अगले 12 वर्षों में दुनिया में डिमेंशिया यानी भूलने की बीमारी के मरीजों का आंकड़ा साढ़े सात करोड़ को पार कर जाएगा और 2050 तक यह आंकड़ा करीब 13 करोड़ तक पहुंच जाएगा।
भारत का स्थान दुनिया में तीसरा
डिमेंशिया के मरीजों के मामले में भारत का स्थान पूरी दुनिया में तीसरा है। पहले नंबर पर चीन और दूसरे नंबर पर अमेरिका काबिज है। वैसे भारत में मरीजों की सही जानकारी सरकार तक नहीं पहुंचने के कारण यह संख्या भी कम ही लगती है क्योंकि ग्रामीण इलाकों के बहुत से मामले तो अस्पतालों तक पहुंच ही नहीं पाते। भूलने की बीमारी को गांवों में बढ़ती उम्र से जोड़कर देखा जाता है और इसके कारण अधिकांश लोग इसे बीमारी मानते ही नहीं है। जाहिर है कि तब इसका इलाज कराने का भी प्रयास नहीं किया जाता है। वैसे यह भी दिलचस्प है कि मात्र 20 फीसदी मामलों में ही मरीजों में डिमेंशिया का पता चल पाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े बताते हैं कि आमतौर पर 85 वर्ष से अधिक की उम्र वाले 25 फीसदी लोग डिमेंशिया से ग्रस्त हो जाते हैं। डिमेंशिया को लेकर जागरूकता की इसी कमी को दूर करने के लिए हर वर्ष 21 सितंबर को डिमेंशिया दिवस मनाया जाता है।
लक्षण
जैसा की पहले ही बताया गया है कि यह भूलने की बीमारी है मगर इसके लक्षण पहले से दिखने लगते हैं। कभी-कभी नींद की कमी, स्वभाव में परिवर्तन, वहम, डर, गुस्सा, दिन, तारीख व जगह को पहचानने में असमर्थ हो जाना आदि लक्षण पाये जाते हैं। मरीजों में ब्रेन की कोशिकाएं सिकुड़ जाती हैं, जिसे सीटी स्कैन या एमआरआइ द्वारा देखा जा सकता है। डिमेंशिया के मरीजों में सोचने-समझने की शक्ति कम हो जाती है या फिर समाप्त हो जाती है अत: इन्हें अकेले नहीं छोड़ना चाहिए। समय रहते यदि इसकी पहचान हो जाए तो बहुत हद तक इसे रोका जा सकता है। इसके लिए परिवार का भावनात्मक सहयोग के साथ-साथ दवाइयों की भी जरूरत होती है।
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